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कविता

कुम्हार का चाक भूख भैरवी और एक प्रश्न

विमलेश त्रिपाठी


समय उसकी मुट्ठी से
आहिस्ता-आहिस्ता रेत की तरह झर रहा है
आ बैठा है वह अरार पर बेखबर
समय के भूखे पेट में बिलाते जा रहे सूरज के साथ

सुन रहा है वह
पानी को चीरकर दूर देश से आती हुई
बाँसुरी की मद्धिम तान
राग भैरवी

रुक गया है समय का चाक
या कि वह झर रहा है लगातार
जैसा कि अक्सर होता है भीमसेन जोशी के पागल आलाप में
हालाँकि वह नहीं जानता
कि भीमसेन नहीं रोक सकते हैं समय का झरना
और सूरज का धीरे-धीरे गायब हो जाना
या यह कि भैरवी की महक
अधिक लुभावनी नहीं हो सकती
बाजरे की सोंधी महक से

भूल गया है वह एक अकेली मुट्ठी
और उससे झरते जा रहे समय को
चाक रुक गया है उसका
कि समय झरकर रुक गया है उसके लिए

पड़ा है मिट्टी का लोन्दा
वैसे ही चार दिन से
और लगभग नहीं गाया गया है
नाचते चाक की लय पर
माटी का कोई बहुत ही सुरीला आदिम गीत
लगभग उतने ही दिन
और उतनी ही रात से

आ बैठा है वह यहाँ इस एकान्त में
रोटी के सपने को
पत्नी की बिसूरती आँखों में छोड़कर
और भूख को
जनमतुआ के पेट में बिलबिलाता हुआ
कि आज पूछेगा ही गंगिया माई से
कि कैसे बाजरे की रोटी
और प्याज की एक फारी के बिना
सदियों रह लेते थे साधु महात्मा इस गरीब देश के

 


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